Saturday, June 4, 2011

New poetry - 4

चलते थे कभी अपने ही ख्वाबों के सहारे पे 
फिरते थे कभी सनम के आखों के इशारे पे  
रहा नहीं ओ मासूमियत ओ अदा न ओ अंजुमन 
चल रहे अभी बेखुदी के अश्कों की नजारे पे 

3 comments:

  1. क्या खूब फरमाया जनाब ने
    फिर भी , चलना नहीं रोखा
    संत कहत की बहता पानी निर्मल
    हम है वाही हम थे जहा!

    येलानागा

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  2. हम तो जहाँ शुरू हुए वहीं अटक गए

    वोही ख्वाब वोही इशारे वोही सहारे!

    मासूमियत का मत पूछो पता

    जिंदगी के राहों पर घुम होगया!

    dont laugh at this idiocracy. today iam in good mood. threw something on the board

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  3. very good ra, neelo inkka aa kavi hrudayam chachipoledu....keep it up

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